बुढ़ापा | Poem on budhapa in Hindi
बुढ़ापा
( Budhapa )
शून्य है शेष जीवन हमारा,
एक ब्यक्ती का संसार हूँ मैं।
अर्थ वाले जहाँ में निरर्थक,
बन गया अब तो बस भार हूँ मैं।
हो गये अपनों के अपने अपने,
उनके अरमां के घर बस गये हैं।
लोग पढ़कर जिसे फेंक देते,
बासी अब तो वो अख़बार हूँ मैं।
सब की सुनता हूँ चुपके से बाते,
हृदयान्त से मंगल मनाता।
मैं भी होता कभी था समन्दर,
खारे पानी का अब क्षार हूँ मैं।
सब किया औ धरा जिन्दगी का,
हो गया ब्यर्थ बदरंग मेरा।
आज आगम कुआगम हमारा,
बीती यादों से बेजार हूँ मैं।
बन गया परिजनों में अपरिचित,
हाल पूछे कोइ हूँ ठीक कहता ।
बीतती रात सूरज चमकता,
इस प्रतीक्षा में हर बार हूँ मैं।